राजेन्द्र सारस्वत
दीपावली आ गई है। आप जानते ही हैं कि तीज, मेले, उत्सव, व्यवहार और त्यौंहार हमारे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कहते हैं कि यदि कोई त्यौंहार और व्यवहार भूल गया तो समझो गया काम से। आप कल्पना करिये यदि होली न होती! हमारी जिंदगी में एक दिन के लिए सात रंग कौन भरता। दशहरा न आता तो जिंदगी की भागदौड़ में धूमधामके का अवसर कैसे आता। ठीक इसी भांति दीपावली आती है तो अमावस की घनघोर काली रात में उजालों के दर्शन कैसे होते। हमारे धर्म ग्रंथ बताते हैं कि भगवान श्रीराम दुष्ट व अहंकारी रावण का वध कर वनवास से लौटे और अवध के राज का मुकुट पहनकर रामराज्य की स्थापना की। इसी खुशी में दीपमालिका का त्यौहार मनाने की परम्परा है। इस अवसर पर मेरा आपसे खूब बतियाने का मन है।
एक शायर की पंक्तियाँ इस मौके पर याद आ रही है…
जो मुस्कुरा रहा है उसे दर्द ने पाला होगा,
जो चल रहा है उसके पांव में छाला होगा,
बिना संघर्ष के कोई भी चमक नहीं सकता,
जो जलेगा उसी दीपक में उजाला होगा…
न जाने क्यूं मुझे लगता है कि दीवाली के एक दिन हम बाहर तो दीयों, लड़ियों और रंगीन झालरों से खूब रौशनी फैलाने का प्रयास करते हैं। पटाखे चला कर धूमधमाका करते हैं। पर मैं महसूस करता हूँ कि लोगों के मनो के भीतर के अंधेरों और हमारे भीतर के सन्नाटे को दूर करने का प्रयत्न करता मुझे कोई नज़र नहीं आता। ऐसे में मुझे मुकेश जी का गाया गाना याद आ रहा है-
’’बाहर तो उजाला है मगर दिल में अंधेरा,
कैसे मै कहूं रात ये है ग़म का सवेरा ’’
बाहर चाहे कितनी ही रौशनी हो। मगर दिल में अंधेरा है तो कैसा उत्सव. चलिए आज इसी विषय को थोड़ा टटोलते हैं।
आपने वो कहावत सुनी है न -’’ दीपक तले अंधेरा ही होता है’’
क्या कमाल का संयोग हैं। उजाला देने वाले के खुद के यहां अंधेरा, दिया रौशनी देता है। यह सबको नजर आता है, लेकिन किसी ने यह अहसास किया है कि दीपक में रूई की बाती और घी या तेल जला करता है। माटी के दीप को घोर ताप सहना होता है। तब जाकर रौशनी हुआ करती है।
किसी शायर ने दीपक के लिए कितना सटीक कहा है कि
’’ बांटता फिरता है जो जमाने भर को उजाला,
सुनते हैं कि उसके दामन में अंधेरा ही अंधेरा है! ’’
दीपक के लिए ही एक अन्य शायर ने कमाल की बात कही है-
’’वो जहां भी रहेगा रौशनी लुटाएगा,
क्योंकि चिरागों का अपना कोई मकां नहीं होता.! ’’
संसार भर को रौशन करने वाले सूरज को स्मरण करिये- उसे कितना तपना पड़ता है। सूरज के लिए कहा गया है कि-’’दुनिया को रौशन करने के लिए मुझे हमेशा जलना पड़ता है। चाहे मैं थक जाऊं समय से पहले ढल नहीं सकता। मैं सूरज हूं मुझे निरंतर चलना ही होता है।
किसी विद्वान ने कहा है कि-’’ दीपक तले हमेशा अंधेरा रहता है। यह प्रकृति का शास्वत नियम है। मानव के लिए भी यह बात लागू होती है। आप कभी दीपक बनाने वाले कुम्भकार के घर गये हैं, मैंने देखा है ऐसे लोग जो हस्तशिल्प से पेट भरा करते हैं। उनके घरों में सुख- सुविधा और साधनों का जीवन भर अभाव ही रहता आया है। चाहे कितनी ही महंगाई आई हो। ऐसे लोगों को उनके उत्पादन का उचित दाम नहीं मिला करता। फुटपाथ पर दीपक बेचने वाले गरीब से लोग सौ मोल-भाव करेंगे। मगर किसी बड़े मौल में वही दीपक दसगुणा दाम देकर बिना हील हुज्जत और कीमत पूछे ही खरीद लेंगे।
आप समाज में दृष्टि डालें-यदि कोई व्यक्ति सारी मानव जाति के लिए अपने जीवन को सेवा भाव से समर्पित कर दिया करता है। तो उसका स्वयं का परिवार दुख व अभावों में ही जीवन यापन करता मिलता है। देखिये न जिस- जिस ने भी समाज के अंधेरे मार्ग में सच्चाई की रौशनी के दीप जलाने की कोशिश की। चाहे वे बुद्ध, नानक, मीरा, रैदास, कबीर, रहीम या जीसस अथवा महात्मा गांधी हुए उनके साथ दुनिया ने क्या व्यवहार किया। ऐसे लोगों का गाली, गोली, जहर या सलीब से स्वागत किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सत्य के लिए युद्ध और साधनों की पवित्रता जिस लड़ाई के मूल में हो वहां हमेशा भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं। लेकिन सत्य के लिए युद्ध और अंधेरे के विरुद्ध लड़ाई चलती ही आई है और निरंतर चलती ही रहेगी। यह मानकर चलना होगा कि असत्य का अंधेरा चाहे कितना भी प्रभावशाली हो, उसकी आयु लम्बी नहीं हुआ करती है। दीपक हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि जहां सत्य है वहां धर्म है। वहीं सुख, शांति और चैन और आनंद है।
यह बात पक्की है कि जब- जब अंधेरे का जिक्र चलेगा उजालों की याद आएगी । जीवन में सुख- दुख उजालों और अंधेरे की भांति है। उजाला जब अपने मार्ग पर होगा तो सत्य और धर्म उसके साथ होगा। तब अंधेरे की क्या मजाल जो उसके राह को रोकने की हिम्मत करे। तो आएं हम भी दीपावली के अवसर पर बेशक खूब मौज करें। खाएं- पीएं. आतिशबाजी फोड़ें, फुलझड़ियां चलाएं. नाचें- झूमे और गाएं। लक्ष्मी की पूजा करते हुए उसे रिझाएं। मगर एक दीप उन लोगों के नाम भी जलाएं जो समाज में कमजोर हैं। बेसहारा हैं, अपंग हैं लाचार हैं, साधनविहीन हैं, बेरोजगारी, असमानता, भुखमरी, महंगाई, मिलावट और भ्रष्टाचार जिनके लिए असहनीय है. अथवा किसी भी भांति मजबूर हैं। याद रहे एक बुझा दीपक दूसरे दीपक को रौशन नहीं कर सकता। मगर एक जलते दीपक की लौ सैंकड़ों, हजारों ही नहीं करोड़ों दीयों में उजाला भर सकती है.
’’ राजेन्द्र सारस्वत, स्वतंत्र पत्रकार, 1/45, हाऊसिंग बोर्ड, श्रीगंगानगर.. 8955297045