लम्बी उड़ान भरती वह
उसके पंखों में हौसलों की वो ताकत थी।
पग पग बढ़ाते मंजील पाने की
बड़ी अटल उसमें चाहत थी ।
गिरकर उठना,हारकर जीतना
जैसे सीख रहती थी वह।
आसमां छूने की चाहत में
सपनों को सी रही थी वह।
कुछ करना था उसे
बुलंदियों पे था पहुंचना।
कुछ बनना था उसे
एक इतिहास भी था रचना।
ये सपनें स्वार्थी नहीं थे
इनमें तो बाबूजी का गर्व
और मां का सम्मान छिपा था
छोटों का सुनहरा भविष्य भी
आज कहीं मुंह बाये खड़ा था।
पर समाज नाम के कीड़े ने
उन सपनों को यूं कुतरना शुरू किया
डरा सहमा सा बाप उसका
और उसे शादी के बंधन में बांध दिया।
कुछ न बोली वह
उसे तो बस बाप की पकड़ी
और मां का सम्मान बचाना था
बेटी थी और बस यही फर्ज निभाना था।
मुकेश सिंह