रामस्वरूप रावतसरे
तृणमूल कॉन्ग्रेस की मुखिया एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी एकता तो झटका देते हुए आखिरकार घोषणा कर दी है कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेले ही उतरेंगी। इसके पहले उन्होंने भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने की खूब कोशिश कीं, लेकिन वे इसमें सफल नहीं रहीं। ममता बनर्जी के अनुसार “2024 में हम तृणमूल और लोगों के बीच एक गठबंधन देखेंगे। हम किसी अन्य राजनीतिक दल के साथ नहीं जाएँगे। जनता के सहयोग से हम अकेले लड़ेंगे। जो बीजेपी को हराना चाहते हैं, मुझे विश्वास है कि वे हमें वोट देंगे।”
बंगाल के सरदिघी उपचुनाव में कॉन्ग्रेस ने सत्तारूढ़ तृणमूल से विधानसभा सीट छीन ली है। इससे तमतमाई ममता बनर्जी ने आरोप लगा दिया कि कॉन्ग्रेस, वामपंथी और भाजपा ने सरदिघी में सांप्रदायिक कार्ड खेला है। जानकारी के अनुसार 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस ने अपने वोट टीएमसी को ट्रांसफर करवाकर भाजपा को रोकने की कोशिश की थी। राजनीति से जुड़े लोगों का कहना है कि 2024 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का ममता बनर्जी का यह कदम आत्मविश्वास और जीत की उम्मीद के कारण उठाया हुआ नहीं लगता है, क्योंकि त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में टीएमसी का खाता भी नहीं खुला है और ना ही इसके पहले के चुनावों में टीएमसी को कोई लाभ मिला है। ममता बनर्जी का यह कदम विपक्ष की आपसी खींचतान और महत्वाकांक्षा का परिणाम है। जिसमें सफलता की गुंजाईस दूर दूर तक अस्पष्ट है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि साल 2021 में पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनावों में जीत के बाद ममता बनर्जी खुद को राष्ट्रीय परिदृश्य पर देखने लगी थीं। जैसे कि आजकल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को देख रहे हैं। ममता बनर्जी की इस महत्वाकांक्षा के पीछे मोदी लहर में भी बंगाल के अपने किले को सुरक्षित बचा ले जाना महत्वपूर्ण था। ममता बनर्जी साल 2019 लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद से ही विपक्षी एकता की प्रमुख वर्ताकार रही थीं, लेकिन उनके राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की यह महत्वाकांक्षा 2021 में बनीं। ऐसा नहीं कि गैर-भाजपा दलों ने मोदी सरकार के खिलाफ मजबूती से खड़ा होने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। कॉन्ग्रेस, टीएमसी, शरद पंवार की एनसीपी, लालू यादव की आरजेडी, उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली तत्कालीन शिवसेना सहित कई पार्टियाँ थीं। उस दौरान ममता एक ताकतवर नेता के रूप में उभरी थीं। जिस तरह नीतीश कुमार आज दिल्ली और अन्य राज्यों में जा-जाकर मुख्यमंत्रियों और क्षेत्रीय दलों के नेताओं से मिल रहे हैं, उसी तरह विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी ने भाजपा विरोधी अभियान शुरू किया था। वे कोलकाता के बजाय अधिकांश समय दिल्ली में रहती थीं। वह भाजपा के खिलाफ एक एक दल को जोड़ कर मजबूत मोर्चा बनाने की तैयारी कर रही थीं।
इधर कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड प्रोगेसिव अलाएंस को मजबूत करने के लिए चहल-पहल बढ़ गई थी। लेकिन ममता बनर्जी चाहती थीं कि उन्हें सोनिया गाँधी की जगह पर यूपीए का अध्यक्ष या फिर संयोजक बनाया जाए। कॉन्ग्रेस इसके लिए तैयार नहीं दिखी और ममता यूपीए में सोनिया गाँधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुईं। खिन्न टीएमसी चीफ ममता बनर्जी ने भाजपा के विरुद्ध विपक्ष की लड़ाई में यूपीए की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘कौन-सा यूपीए? यूपीए कुछ नहीं है’। इस पर बंगाल के कॉन्ग्रेसी नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता पर सवाल उठाते हुए कहा था, “क्या ममता बनर्जी को पता नहीं कि यूपीए क्या है? मुझे लगता है उनके पागलपन की शुरुआत हो गई है। उन्हें लगता है सारा भारत ममता-ममता का जाप कर रहा है, लेकिन भारत का अर्थ बंगाल नहीं है और बंगाल का अर्थ भारत नहीं है।”
इसके बाद कॉन्ग्रेस और टीएमसी के पास आने की संभावनाएँ खत्म हो गईं। लेकिन फिर भी यदाकदा आपसी खींचतान के बीच तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद जारी रही है, लेकिन शरद पंवार, जदयू के नीतीश कुमार, आरजेडी के तेजस्वी, टीएमसी की ममता, समाजवादी के अखिलेश यादव, बीजेडी के पटनायक की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ भी कम नहीं हुईं और ये मोर्चा किसी भी प्रकार का आकार नहीं ले सका।
इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव के समय एक बार फिर भाजपा की राष्ट्रपति उम्मीदवार के खिलाफ संयुक्त प्रत्याशी उतारकर विपक्षी एकता का संदेश देने की कोशिश की गई। इनमें कॉन्ग्रेस, टीएमसी, एनसीपी, शिवसेना, बीजेडी सपा, पीडीपी आदि प्रमुख दल थे। यहाँ पर ममता ने अपनी पार्टी के नेता यशवंत सिन्हा को संयुक्त उम्मीदवार बनाया। राष्ट्रपति चुनाव में जब मतदान की बारी आई तो यह एकता फिर बिखर गई। यशवंत सिन्हा भले ही संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार थे, लेकिन द्रौपदी मुर्मू का नाम उम्मीदवार के तौर पर सामने आते ही कॉन्ग्रेस, बीजेडी, जेएमएम, वाई एआर, शिव सेना के उद्धव गुट ने यशवंत सिन्हा से किनारा कर लिया। यह प्रयास भी क्षेत्रीय दलों को एक साथ नहीं कर पाया।
अब जबकि 2024 लोकसभा चुनाव ममता बनर्जी ने अंततः अकेले ही लड़ने का ऐलान कर दिया। ऐसे में भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनने की संभावना लगभग खत्म होती जा रही है। डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के 70वें जन्मदिन पर देश की कई विपक्षी पार्टियों के नेता चेन्नई में जुटे। इस जलसे में जुटे सभी नेताओं ने विपक्षी एकता की बात की। विपक्ष की एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा नेतृत्व के मसले पर थी, जिसे लेकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने काफी हद तक स्थिति स्पष्ट कर दी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने कभी नहीं कहा है कि कौन प्रधानमंत्री बनेगा। उन्होंने साफ किया कि कांग्रेस विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की जिद नहीं कर रही है। स्टालिन के जन्मदिन के मौके पर समाजवादी पार्टी का कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ मंच साझा करना भी अहम बताया जा रहा है। सपा और कांग्रेस के बीच पिछले कुछ समय से तनाव है। 2017 का विधानसभा चुनाव साथ लड़ने के बाद से दोनों पार्टियां अलग अलग हैं। 2019 में सपा ने बसपा के साथ मिल कर लोकसभा का चुनाव लड़ा था और कांग्रेस को अलग रखा था।
जानकार सूत्रों का कहना है कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव तीसरे मोर्चे की बजाय दूसरे मोर्चे में शामिल होने पर राजी हो गए हैं। दूसरा मोर्चा यानी वह विपक्षी गठबंधन, जिसमें कांग्रेस हो। अब तक माना जा रहा था कि तृणमूल कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति और आम आदमी पार्टी की तरह समाजवादी पार्टी भी तीसरा मोर्चा बनाने के पक्ष में है। लेकिन अब ऐसा नहीं लग रहा है। क्योंकि तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश करने वाले चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को स्टालिन के जन्मदिन के आयोजन में न्योता नहीं दिया गया था। इसके साथ ही चेन्नई में तीसरे मोर्चे की बात करने वालों की आलोचना की गई। कांग्रेस की बात दोहराते हुए स्टालिन ने कहा कि तीसरा मोर्चा बना तो उससे भाजपा को फायदा होगा। यह केसीआर, ममता और केजरीवाल तीनों को साझा विपक्ष की ओर से मैसेज था। स्टालिन के जन्मदिन के कार्यक्रम से कांग्रेस को साथ लेकर बनने वाले विपक्षी गठबंधन की रूप रेखा बनना बताया जा रहा है। कांग्रेस के अलावा उसकी सहयोगी डीएमके, नेशनल कांफ्रेस और राजद इसमें शामिल हैं। एक तरह से अखिलेश यादव ने भी इसमें शामिल होने का संकेत दे दिया है। लेकिन इसका मुखिया कौन बनेगा, अभी स्पष्ट नहीं है।
जहां विपक्ष अपनी महत्वकांक्षा के चलते अपने ही अन्तर्द्वन्दों में उलझा है, वहीं भाजपा अपने अभियान में निरंतर आगे बढ रही है। भाजपा के लिए इस राह को विपक्ष ने ही आसान कर दिया है। विपक्ष को जिन बातों से बचना चाहिए, उसे वह अधिक वाचालता से उठा रहा है। उनकी यही सड़क छाप राजनीति भाजपा के लिए वरदान साबित हो रही है। जैसा कि कहा जाता है भारत अब बदल रहा है। निश्चित रूप से ऐसा ही है विपक्ष को सही मायनों में मोदी का मुकाबला करना है और जनता में अपनी साख बनानी है तो, उन्हें अपने सभी प्रकार के मतभेद भुलाकर पुख्ता तैयारी एवं तथ्यों के साथ मैदान में आना चाहिए। टारगेट मोदी नहीं, उनके काम हो। तभी विपक्ष का एक होने में लाभ है। अन्यथा अपनी अपनी डफली अपना अपना राग तो अलाप ही रहे है।