दूर्वा जैसी दृढ़ता से जब
आगे बढ़ने का चाव दिखे,
धरती का धैर्य दिखे उसमें
जननी-सा वत्सलभाव दिखे,
पृथ्वी पुत्री की गरिमा से
सम्पूर्ण सृष्टि परिवर्धित हो,
वंदित हो ऋतु-ऋतु,पर्व-पर्व
संस्कृति-संस्कृति संवर्धित हो,
उसका कोमल कर लहराये
जब कीर्ति-पताका दिग्दिगंत,
नारी का ऐसा हो वसन्त !
‘महिला’ महनीया होने से
जनने के कारण जननी है,
सदियों से झेली पीड़ा से
वह हृदय भले ही छलनी है,
पर,नहीं किसी से हारी है,
अरि नहीं किसी की, नारी है,
कोई भी गाली दे न सके‐-
‘वह अबला या बेचारी है ‘,
ऐसा गौरव वह पा जाये
जिसका न कहीं हो कभी अन्त,
नारी का ऐसा हो वसन्त !
मलयानिल -सा शीतल सौरभ
उसके आँचल से लहक उठे ,
उसकी वाणी के अमृत से
रसधार प्रेम की छलक उठे ,
नयनों से ममता का सागर
लेकर हिलोर जब झलक उठे,
आशीषों की वर्षा करने
उर मातृभूमि का ललक उठे
प्रत्येक हृदय में भर जाये
श्रद्धा अनन्त ,करुणा अनन्त,
नारी का ऐसा हो वसन्त !
प्रत्येक वर्ण गौरव पाये
प्रत्येक वर्ण खिल-खिल जाये,
रोमांचित हो हरियाली भी
पूरी वसुधा पर छा जाये ,
प्रत्येक वाटिका झूम उठे
जब प्रात समय कलरव आये,
रोली-दीपक का थाल लिये
जब सांध्य प्रकृति मंगल गाये,
सम्पूर्ण सृष्टि यह दोहराये —
नारी का ऐसा हो वसन्त !
नारी का ऐसा हो वसन्त !!
मिथिलेश दीक्षित
जी-91, सी, संजय गान्धी पुरम
लखनऊ–226016 (उ.प्र. )