विधा- गद्य !
लेखक – रामकृष्ण वि० सहस्रबुद्धे!
प्रकाशन- पुस्तक पथ !
मूल्य- 350/- रुपये!
प्रथम संस्करण- दिसम्बर 2018
आधुनिक भारत के निर्माता- सहस्रबुद्धे जी द्वारा रचित गाँधी, लोहिया और दीनदयाल ” आधुनिक भारत के निर्माता ” पुस्तक मेरे हाथों में है ! विद्वान लेखक आ०रामकृष्ण वी सहस्रबुद्धे जी द्वारा रचित पुस्तक, पुस्तक पथ , प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित है ! मुख पृष्ठ की पिछली तरफ प्रकाशन द्वारा पुस्तक में प्रस्तुत केन्द्रीय विचार को सूत्रात्मक रूप से पृष्ठांकित किया है ! ” सामाजिक विषमताओं,देश के बदले हुए हालतों,खासकर भ्रष्टाचार ,जातीय संघर्ष,गरीबी, बीमारी, आरक्षण, बिगडती हुई अर्थ व्यवस्था, गिरती हुई नैतिकता से मन व्यथित व द्रवित होता है! ऐसा लगता हैं कि हम अपने पूर्वजों के विचारों को अनदेखा कर पश्चिम की अंधी दौड़ में शामिल हो गये हैं!भारत को एक स्वावलंबी, समृद्ध तथा सशक्त राष्ट्र बनाना है तो हमें महात्मा गांधी,राममनोहर लोहिया , पं० दीन दयाल उपाध्याय जी जैसे चिंतकों के दर्शन को अपनाना होगा! इस त्रिकोणीय विचारधारा से राष्ट्र वाद प्रजातंत्र और समाज वाद एक साथ आ पाएगें और तभी राष्ट्र निर्माण को एक बहु प्रतीक्षित नई दिशा मिल सकेगी …”
इस संदर्भ में यह समाहित है कि तीनो की विचारधारा का समन्वय कर राष्ट्रीय उत्थान की दिशा में आगे बढ़ना होगा!
संपादकीय आदरणीय एल .उमाशंकर सिंह जी द्वारा बहुत ही सारगर्भित व प्रेरक समीक्षा की दृष्टि से उद्धृत किया है जिसमे राष्ट्र वाद के उदगम और आधार को समझने के लिए त्रिबिंदु रखे हैं- १~ आदिमवाद या स्थायित्व वाद हमेशा राष्ट्र के अस्तित्व में रहें हैं! २संजाति प्रतीक वाद ( प्रतीकों के माध्यम से भाव ,अग्रिम परीक्षण करके समझने की क्षमता रही है )३ आधुनिकता वाद ( राष्ट्र को आधुनिक दृष्टि से परिभाषित) गाँधी के राष्ट्र वाद ,लोहिया और पं उपाध्याय जी के राष्ट्र वाद को सूक्ष्मता से अभिव्यक्ति दी है!
भूमिका आ० सुबोध मिश्र जी, अध्यक्ष अखिल हिन्दी साहित्य सभा नाशिक द्वारा लिखी गई है जो बेजोड़ और पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में उत्कृष्ट व तथ्यात्मक भावाभिव्यक्ति है ! आपके द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि समस्याओं से निपटने,मार्गदर्शन के लिए, जन मानस को विषम परिस्थितियों से उबारने के लिए आ० सहस्रबुद्धे जी द्वारा पुस्तक लिखी गई है! आपने पुस्तक की वृहद समीक्षा की है जिसमे सामाजिक विषमताओं,वर्तमान देश की हालत,त्रिकोणीय विचारधारा की आवश्यकता,लेखक के विचारों का सघनता से परीक्षण कर सामयिक चेतना से अवगुंठित किया है!
लेखक आ० सहस्रबुद्धे जी ने अपनी बात में तीनो महान व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए लिखा कि तीनों का उद्देश्य राष्ट्रीय हित करना था !हालांकि तीनों के रास्ते अलग अलग थे ! परंतु मंजिल की समानता के कारण तीनो ही सशक्त,समृद्ध और आत्म निर्भर भारत बनाना चाहते थे !आपने बताया कि अपको अपने पिताजी का संघ से जुड़े होने के कारण आ० पं उपाध्याय जी का आशीर्वाद प्राप्त था !
पुस्तक पाँच अनुक्रम में विभक्त है जिसमे १~ युगानुकूल समग्र दृष्टि की आवश्यकता!२लोकतंत्र: एक मात्र विकल्प!३स्वराज्य,सुराज्य और उद्योग!४आर्थिक,राजनैतिक, सामाजिक स्वतंत्रता!५ वाद नहीं सम्वाद चाहिए ६~धर्म के बिना विकास नही!
इस तरह छः निबंधों का परिदृश्य सामने आता है!
पुस्तक को समीक्षार्थ जब पढने का उपक्रम किया और लेखक की विषयवस्तु, तथ्यात्मक जानकारी और सूक्ष्म अभिव्यक्ति को पढते – पढते गहन चिंतन में डूबता ही रहा ! आपकी तथ्यों को पकड़ने की क्षमता, उसको स्पष्टता से बोध ग्राह्यता तक पहुँचाने की प्रवणता से प्रभावित होकर पुस्तक पढने की रूचि बढती ही गई ! आज चार दिन हो रहे है सुबह शाम के दो दो घंटों की एकाग्रता ने इस पुस्तक को पढने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है!
मैं निरंतर सोचता हूँ कि “व्हेयर आर दी गांधीयन्स ?” गांधी वाद कहाँ है? इस देश में नागरिकों को अपने मस्तिष्क की समीक्षा करनी पड़ेगी! हम पाश्चात्य संस्कृति और बाह्य दिखावट के मोह जाल में इतने फँस गये है कि भीतरी संस्कृति की चेतना और आत्मावलोकन से काफी दूर चले गए हैं! हमने बाहरी कंकड पत्थरों को मोती समझ लिया है, हम हमारे महान महापुरुषों के द्वारा उनके कर्म क्षेत्र से उत्पन्न बौद्धिक संपदा जो देश की उन्नति,विकास और युगांतरकारी परिवर्तन के माध्यम से विश्व में अपनी महत्ता का पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है, उस विचारधारा से काफ़ी दूर चले गए हैं ! मेरी अपनी मान्यता है कि जो भी महान हुए है उनके बारे में या तो महानता से बोलना चाहिए या मौन रहना चाहिए! हुआ यह कि पढे लिखे लोगों द्वारा भी महान व्यक्तित्व के संदर्भ मे बहुत कम विवेचना हुई है! जब कि जो विचार धारा वे देकर गये है उसमें राष्ट्रीय विचारधारा में अखंडता और सामाजिक जीवन में एकता सहिष्णुता और परोपकार की भावना का प्रादुर्भाव उत्पन्न करने में विचारधारा समर्थ है! वास्तविकता यह है कि अधिकांश बौद्धिक वर्ग भी ‘’महानता’’ से मतलब निकालता है नकारात्मक दृष्टि या स्वयं की मासूमियत !‘’
आ० सहस्रबुद्धे जी द्वारा रचित आधुनिक भारत के निर्माता पुस्तक से तीनों महापुरुषों के व्यक्तित्व ,चिंतन और सिद्धांतों को आत्मसात कर आत्म बोध हुआ हैं! यथा- ” आधुनिक स्वतंत्रत खंडित भारत के पुनः निर्माण,पुनरुत्थान, पुनर्रचना के लिए हमें आत्म निर्भर , सशक्त, सक्षम बनाना होगा, अपने पुराने आदर्शो,जीवन मूल्यों, परंपराओं को समृद्ध करना होगा!” और यह सब महापुरुषों द्वारा प्रदत्त दिशानिर्देशों की क्रियान्वयन और अनुपालना द्वारा ही संभव है !
आपने इस संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए लिखा कि गांधी का राष्ट्रवाद व्यक्ति और मानवता वाद को अधिक महत्व देता है उन्होंने साम्यवादी राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद को कभी स्वीकार नहीं किया ! आपके पुस्तक की अध्याय वार समीक्षा का प्रयास कर रहा हूँ!
१~ युगानुकूल समन्वित दृष्टि की आवश्यकता-आपने इस संदर्भ में आज के युग के परिप्रेक्ष्य में उपलब्धियों को कसौटी पर कसते हुए बताया कि विगत ६७ वर्षों में हमने काफी प्रगति तो की परंतु हम अभी तक विकासशील राष्ट्र के रूप में ही जाने जाते हैं! स्वतंत्रता ने प्रगति की राहें खोली परंतु मार्ग की बाधाएँ , बाह्य समस्याओं के जाल , आर्थिक, सामाजिक विषमता, जातीय संघर्ष, सांप्रदायिकता , अलगाव वाद ,क्षेत्र वाद ,मंहगाई, जनसंख्या,बेकारी , औद्योगिक अशान्ति, प्राकृतिक आपदाओं के कारण हम वांछित प्रगति नही कर सके ! दृढ़ निश्चय और संकल्प के साथ हमें आगे बढ़ना होगा! आपके उल्लेखित कारणों के साथ साथ आरक्षण को भी मूल कारण माना है जबकि इस संदर्भ में जाति प्रथा के दोष और सामाजिक ऊँच नीच पर भी गहराई से मंथन करने की आवश्यकता है! आपने बताया कि रोजी- रोटी का अधिकार मनुष्य का मौलिक अधिकार हो ! गाँव से शहर की तरफ पलायन की प्रवृत्ति के लिए रचनात्मक उपाय किए जाने चाहिए ! आपने बताया कि पुनर्निर्माण के लिए अतीत से जुडना आवश्यक है ” हम अतीत से जुड़े,अपने गौरवशाली इतिहास को जानें-समझे , परंपरा से जुड़े और उनका सम्यक् अध्ययन कर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण कर स्वीकार करें!” आपका यह कथ्य राष्ट्रीय अस्मिता का पोषक है! एक राष्ट्र, भौगोलिक विभिन्नता में भी आत्मा की एकता, वृहद भारत की भौगोलिक जानकारी और जीवन मूल्यों को परंपराओं से समृद्ध करने की सामर्थ्य शक्ति पैदा करने की आवश्यकता पर बल दिया है! भारत की पारस्परिक आत्म निर्भरता, समग्रता का विचार, भारतीय चिंतन एवं दर्शन का व्यापक प्रभाव भारतीय संस्कृति की धरोहर है! परंतु आज की परिस्थितियों का आकलन करते हुए आपने लिखा कि धर्म और संस्कृति से कटी हुई राजनीति ने उन्नति का जामा पहन कर समाज में अशांति का जहर बोया है! प्रजातंत्र की अपनी महत्ता है इसके प्रति श्रद्धा को आप स्वीकार करते हैं और लिखते है ” लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा ,आस्था ,आदर और विश्वास की भावना जागृत करनी होगी ,ताकि दलीय हित, व्यक्ति हित,जाति हित,प्रांत हित की क्षुद्र भावना एवं सोच से उपर उठकर समाज एवं राष्ट्र हित का विचार करें !”
भारतीय संस्कृति और परंपराओं का सत्यान्वेषण विदेशी विद्वानों ने अपनी राजनीतिक सुविधा की दृष्टि से किया और इसी कारण हम अपनी जड़ों से उखड़ते चले गए आप लिखते हैं ” पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विकृत गलत व्याख्याओं के कारण हम अतीत से कट गये !” यह तथ्य निरापद है और सत्य हैं ! इन लोगों ने हमारी अस्मिता पर हमले किए हैं और सर्वोत्तम संस्कृति को कुचलने का कुत्सित प्रयत्न किया है! इस विषम पराधीनता के काल में भी इन तीनों महापुरुषों ने भारत की पुनः गौरव शाली परंपराओं व संस्कृति को बचाने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है! महात्मा गांधी ने विदेशी शक्तियों से संघर्ष करते हुए नयी योजनाएँ प्रस्तुत की , जिसमे समन्वय,तालमेल, का महत्व रहा! डाॅ राम मनोहर लोहिया एक समाजवादी चिंतक, विचारक ,मनीषी ,स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रदूत ने समाजवादी आन्दोलनों द्वारा अपनी भूमिका निभाई! वे स्वस्थ,सशक्त लोकतांत्रिक पद्धति के समर्थक रहे ! आदरणीय पं० दीन दयाल उपाध्याय जी जैसे कर्मठ शांत और गंभीर मनीषी ने भारतीय समाज को नितांत मौलिक चिंतन दिया “एकात्म मानव वाद ” ! उन्होंने पूँजीवादी व समाजवादी व्यवस्थाओं के दोष , उनमें समन्वय की आवश्यकता पर बल दिया है! वे राष्ट्रवादी विचारधारा की आवश्यकता और विश्व को युगानुकूल जीवन दर्शन देने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई!
२~ लोक तंत्र एक मात्र विकल्प- भारतीय परंपरा को ध्वश और निर्माण की बताते हुए आपने लिखा है कि भारतीय परंपरा में सृजन और विनाश की अपूर्व क्षमता है , एक हाथ में सृजन और दूसरे हाथ में प्रलय! यही प्रकृति की भी प्रवृत्ति है इसी से व्यवस्था और जीवन मूल्य पनपते हैं! आपकी इस कथन और जीवन दृष्टि से सत्य सार्वभौमिक हो उठा है! इस संदर्भ में आपने अपनी बात के परिप्रेक्ष्य में पंडित जी के कथन को रखा है” …व्यवस्था की और देखने का तरीका ठीक नहीं रहा तो किसी भी व्यवस्था में भेद उत्पन्न किये जा सकते है …दोषो या विकृतियों को हटाने के नाम पर संपूर्ण व्यवस्था को नष्ट करने की बात क्या बुद्धिमानी होगी ? ”
आपने वर्तमान संविधान में त्रुटि बताते हुए लिखा कि” अंग्रेजों ने भारतीयों के लिए जो संघीय संविधान का ढाँचा दिया था वह यथावत लागू करने में हमने भारी भूल की है!” आगे आपने लिखा कि “भारतीय राजनीति के जनक भीष्म से लेकर मनु के विचारों या आधुनिक काल के आचार्य चाणक्य के नीतियों की झलक तक नही मिलती ! ” एक दृष्टि से आपने भारतीय संस्कृति मूल्य बोध एवं चिंतन की बात कही है!
आपने भगवान श्री राम, कृष्ण, पांडव आदि की राजनीति का उल्लेख कर भारतीय अस्मिता की बात कही है! इस विस्तृत वर्णन के उपरांत आपने प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों में गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली की बात को स्वीकार किया है!भारतीय संविधान के प्रारूप को अंकित कर संवेधानिक अधिकार और कर्तव्यों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया है! आपने बताया कि जनशक्ति के निरंतर जागरण ,संघटन , लोक कल्याण और रचनात्मकता की कसौटी पर लोकतंत्र की सफलता निर्भर है!
महात्मा गाँधी ने गाँवों में स्वराज के मंत्र को फूँका , डाॅ लोहिया ने आर्थिक पहलू को महत्वपूर्ण जानते हुए शोषण विहीन समाज की कल्पना सामने रखी , पंडित जी ने भारतीय संस्कृति की महान परंपराओं और भारतीय आत्मा को पहचानने पर बल दिया! आपने अपने आलेख में गांधी, लोहिया और पंडित जी के विशद विचारों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है जो भारतीय राजनीति के जीवन की संपूर्णता का उत्सव बन सकता है! पंडित जी की लोकतंत्र के संदर्भ में अवधारणा में मर्यादित शासन शक्ति,बाहरी ढांचे पर निर्भर न हो ,एक राष्ट्र की भावना विशेषकर है ! निष्कर्ष में आदरणीय डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विरोधी दल के कथ्य को स्वीकार कर अपनी बात इस संदर्भ में समाप्त करता हूँ ” सत्ताधारी गलती करें तो हमारा कर्तव्य है कि हम उसकी भूल या असफलता को बताकर ही चुप न रहें… (विपक्ष को )विरोधी पक्ष को सरकार की खुली आलोचना करनी चाहिये …!” लोकतंत्र को बचाने का यही सुगम रास्ता है!
३~स्वराज,सुराज्य और उद्योग- आपने अपने आलेख में स्पष्ट किया है कि गांधी जी की सत्य और अहिंसा स्वराज्य की कल्पना में हिंसा का लेश मात्र भी अंश नहीं है! इस स्वराज्य को सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों से लाना होगा,इसमें व्यक्तिगत हित या स्वार्थ नही होगा यह स्वराज भारतीय चिंतन और दर्शन पर आधारित होगा ! उनका सपनों का स्वराज्य गरीबों का होगा तथा उसमें गाँवों की प्रधानता रहेगी!
पंडित जी के स्वराज्य की चर्चा करते हुए आपने लिखा है स्वराज्य जीवंत राष्ट्र का साधारण लक्षण है इसके बिना राष्ट्र अपना हित और अभिव्यक्ति को संपादित नही कर सकता!
डाॅ लोहिया का मानना था संसद परिवर्तन का हमेशा माध्यम नही बन सकती! ये सहायक हो सकती है पर पर्याप्त नही ! इस प्रकार से स्पष्ट है कि जिन गांधीवादी, समाजवादी चिंतकों को स्वराज्य की जिम्मेदारी थी ,वे अपनी अलग-अलग सोच विचार , कार्य प्रणाली व दिशा रखते थे ! इन पृथक इकाइयों के बीच समन्वय ही स्वराज्य और सुराज्य की नीव डाल सकता था ! आपने बताया कि पं० दीनदयाल मानते थे कि भोग में संयम रहें तो ही सुख मिलेगा!उत्पादन में वृद्धि,न्यायोचित वितरण और संयमित उपभोग इन तीनों बातों पर विचार करना आवश्यक है! पं० जी स्पष्ट रूप से कहा कि ” विदेशी सहायता और विदेशी यंत्र से उत्पादन व नगरीकरण बढता है,आय में अवास्तविक वृद्धि होती है इस कारण मँहगाई बढती है !
आज का मनुष्य अर्थ प्रधान व्यवस्था का शिकार है किसी भी व्यवस्था में यांत्रिक सभ्यता के उदय से और लोकतंत्र के पराभव से दोनों के बीच मानवता पीस रही है और मनुष्य सुख शांति की खोज में है!आपने अपने मत देकर स्पष्ट किया है कि ” मैं साफ तौर पर कहता हूँ कि बड़े पैमाने पर माल उत्पादन करने का पागलपन ही दुनिया की मौजूद संकट का कारण है!” इस संदर्भ में चिंतन की आवश्यकता है!
४~ आर्थिक-राजनैतिक – सामाजिक स्वतंत्रता-
समाज में अर्थ का अभाव अनर्थ कर देता है! सूखस्य मूलं धर्म: धर्मस्य मूलमर्थः इस सूत्र की समाज व धर्म के प्रति बहुआयामी व्याख्या आपने करते हुए लिखा है कि अर्थाभाव से पीड़ित विश्वामित्र ने चाण्डाल के यहाँ झूठा खाना खाया! इस कथन के निहितार्थ बहुत गहरे में है !इसे आपने आपद धर्म की संज्ञा दी है!लोगो आत्मनिर्भर बनाने के लिये उचित न्याय की आवश्यकता का चाणक्य नीति से आपनें प्रतिपादन किया है जो सार्थक और समीचीन हैं!चाणक्य ने कहा ” मैं मानव जाति की बुनियादी एकता और समानता में विश्वास करता हूँ …मैं सभी महजबों को एक ही पेड़ की शाखाएं मानता हूँ ” इसी तथ्य का विकृति देखी गई गांधी जी एकता की स्थापना के लिए मुसलमानों का तुष्टीकरण करते रहे और वैचारिक खाई बढती गई! डाॅ लोहिया बहुकारण वादी थे इसलिए संपूर्णता वादी दृष्टिवत होते हैं!वे समकालीन परिस्थितियों का मूल्यांकन समकालीन संदर्भों से ही करते हैं संस्कृति के मूल तत्वों को पहचान कर परंपराओं से नही करते ! समाज में जाति व्यवस्था दोंनो ही मानते हैं पर उनकी दृष्टि में भिन्नता नजर आती है गांधीजी जाति व्यवस्था को नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं उन्हें यह व्यवस्था शोषक नहीं लगती पर वे अस्पृश्यता व अन्य सामाजिक विषमताओं में आवश्यक सुधार चाहते थे जबकि डाॅ लोहिया जाति तोडने की बात करते थे ! आपने इस संदर्भ में दोनों के मत का बहुत ही तथ्यात्मक विश्लेषण किया है!
५~ वाद नहीं संवाद चाहिए- आपने अपने आलेख में आज की मूल संवेदना को स्पर्श करते हुए पं० जी के कथ्य को रखा कि वर्तमान की मूल समस्याओं का कारण अतीत से अनभिज्ञता है ! अतीत से ही भविष्य का निर्माण संभव है पं ० कहते हैं कि ” विश्व की समस्याओं का उत्तर समाज वाद नही हिन्दुत्व वाद है !…हमें धर्म राज्य ,लोकतंत्र, सामाजिक समानता और आर्थिक विकेन्द्रीकरण को लक्ष्य बनाना होगा! ” आपने बताया कि ” बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नही मनुष्य है !” आपने गांधीजी के कथ्य से स्पष्ट किया है कि साम्यवाद, समाजवाद पश्चिम के सिद्धांतों पर आधारित है …समाजवाद और साम्यवाद की रचना अहिंसा पर आधारित हो जिसमें पूँजीपति,किसान, मजदूर और जमींदार सहयोगी बनकर समाज के निर्माण में जुटे! “आपने बताया कि आज के युग में अर्थोपार्जन आवश्यकता की जगह सर्वस्व बन गया है !”आपने पं० जी के कथन का सहारा लेते हुए बताया कि व्यक्ति व्यक्ति के बीच समाज के व्यवहार में परस्पर अनुकूलता रहेगी तो व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसका सम्मान भी सुरक्षित रहेगा! आपके आलेख में पूँजीवादी, साम्यवादी व समाजवादी व्यवस्था में प्रयाप्त कमियां हैं, इस तथ्य का भी सार्थक विवेचन किया गया है!डाॅ लोहिया के कथ्य का निरूपण करते हुए आपने लिखा है कि अहिंसा और सत्याग्रह को साथ साथ ही समझना होगा क्यों कि नकारात्मक और सकारात्मक रूप साथ साथ ही चलते हैं! आपने बताया कि आधुनिक भारत को सशक्त सर्वांगीण विकसित भारत बनाने के लिए तीनों महापुरुषों के विचारों की समीक्षा कर नई सोच और संकल्प के साथ नये रास्ते बनाने होंगे!
५~धर्म के बिना विकास नहीं- यह अकाट्य सत्य है कि धर्म के बिना व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है वह पुरुषार्थ हीन हो जाता है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म की आवश्यकता रहती है! आपने सुस्पष्ट किया है कि धर्म विश्व व्यापी मानवता के लिए, उसके कल्याण के लिए स्वीकार किया गया है! आपने धर्मोधारियति प्रजा के सूत्र का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है!धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की आपने बहुत सुन्दर मीमांसा की है!आपने पं० जी के कथनानुसार मुक्ति के संदर्भ में लिखा “मुक्ति कभी व्यक्तिगत नही होती वह समष्टि गत ही होती है!” बुद्ध और गांधी द्वारा अहिंसा का मार्ग, राम कृष्ण परमहंस द्वारा दिया गया सर्वधर्म समन्वय के संदेश की उपादेयता का भी आपने सार्थक सत्यान्वेषण किया है!भारतीय जीवन दर्शन ” एकात्म दर्शन का आत्मीय भाव , चैतन्य आत्म शक्ति का मूल्यांकन और यथार्थ और कल्पना के बीच ईश्वरीय तारतम्यता का सारगर्भित विश्लेषण आपकी लेखनी का प्रबल पक्ष है ! पश्चिम भौतिक वाद की वास्तविकता और आत्मा, परमात्मा की अनंतता का शास्वत व तर्क संगत औचित्य आपने अपने आलेख में स्पष्ट किया है!आपने सर्वधर्म समभाव या पंथ निरपेक्षता के विचार को जो संविधान में निहित है उसकी भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राजनैतिक संदर्भों में विश्लेषण किया है! हिन्दु धर्म सार्वभौमिक व सर्वकालीन सनातन है, आपने इस संदर्भ में विभिन्न सार्थक तथ्यों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है! आपने अंत में अपने आलेख में शासन व्यवस्था पर धर्म के अंकुश की बात कही है जो सबके सुख ,कल्याण और सशक्त भारत के नव निर्माण के लिए सार्थक है !
समग्र रूप से मूल्यांकन कर मुझे यह कहना ही पड़ेगा कि आपकी लेखनी में समकालीन सरोकारों से उत्पन्न विचारों और परंपराओं का सत्यान्वेषण कर हिन्दुस्तान की संस्कृति में प्रगाढ़ आत्मीयता की अभिव्यक्ति का अवसर को आपने अधिक सूक्ष्मता व चेतना से अभिव्यक्त किया है! आपकी उदारता की भावना में नैसर्गिक मनुष्य की आत्मा के दर्शन होते हैं! तीनों महापुरुषों की समग्र चेतना का दिग्दर्शन आपके द्वारा प्रदत्त उनके कहे गये कथ्यों से स्पष्ट हो गया है! राजनैतिक, बौद्धिक,वैज्ञानिक , आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विचारधारा की कसौटी पर आपकी पुस्तक ऐतिहासिक संदर्भों की तथ्यात्मक ताजगी देती प्रतीत होती है! साहित्य के क्षेत्र में अग्रणीय यशस्वी साहित्यकार रामकृष्ण वि० सहस्रबुद्धे की यह पुस्तक अद्वितीय व प्रभावी शैली में अंतःकरण को स्पर्श कर भारतीय अस्मिता, संस्कृति और परंपराओं की और हमारा ध्यान आकर्षित करने में समर्थ है! आदरणीय सहस्रबुद्धे जी को साधुवाद!
डाॅ०छगन लाल गर्ग “विज्ञ”!
कवि एवं साहित्यकार (पूर्व प्रधानाचार्य )
2डी 78 राजस्थान हाउसिंग बोर्ड आकराभट्टा,शांति वन ! आबू रोड – सिरोही!