समतामूलक समाज के निर्माण का संकल्प दोहराती हैं रश्मि की कविताएं

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कृति : कहत कबीरन
लेखक : रश्मि बजाज
विधा : काव्य
पृष्ठ : 120 (सजिल्द)
मूल्य : ₹280
प्रकाशक:अयन प्रकाशन,नई दिल्ली
समीक्षा : कृष्ण गोपाल विद्यार्थी

छोटी काशी के नाम से जगप्रसिद्ध हरियाणा के ऐतिहासिक नगर भिवानी के साहित्यकारों में अपनी विशिष्ट लेखनशैली के लिए सुचर्चित रश्मि बजाज का नवीनतम काव्य संग्रह ‘कहत कबीरन’ भी उनसे पूर्वपरिचित पाठकों की अपेक्षाओं पर न केवल खरा उतरता है अपितु जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े विषयों पर उनकी गहरी पकड़ से रूबरू कराता है। इस कबीरन की कविताएं केवल समाज और व्यवस्था से जुड़े शब्द-चित्र ही प्रस्तुत नहीं करती अपितु समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक पहल के लिए प्रेरित भी करती हैं। वैश्य पी.जी.कॉलेज भिवानी में अंग्रेजी विभाग की विभागाध्यक्ष रहीं रश्मि बजाज की हिन्दी और उर्दू भाषा पर गहरी पकड़ जहां उनके मित्रों को चौंकाती है वहीं जीवन से जुड़े सभी विषयों पर बेबाकी से अपनी बात कहने वाली व ख़्वाब देखने की जुर्रत करने वाली यह स्वयं सिद्धा अपने कुछ अन्य काव्य संग्रहों की भांति इस बार भी आधी दुनिया की प्रतिनिधि क़लम के रूप में प्रस्तुत हुई हैं।

सांच पथ,कोरोना काल, स्त्री और ऐ मेरे देश के नाम से चार खण्डों में विभक्त उनके इस ताज़ा काव्य संग्रह में यूं तो वर्तमान जीवन से जुड़े अनेक मुद्दों पर सारगर्भित टिप्पणियां मौजूद हैं किन्तु स्त्री (पृष्ठ 57 से 86) खण्ड के अंतर्गत उनकी कविताएं देश और दुनिया की तमाम महिलाओं की सांझी सोच का दर्पण मालूम होती हैं। महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद कुछ अपवादों को छोड़कर समाज की वास्तविक स्थिति को रेखांकित करते हुए कबीरन कहती है

स्त्री को ढूंढन
गई कबीरन
लौटी खाली हाथ…

स्त्री का परिचय
स्त्री का मज़हब,
स्त्री का परचम
स्त्री की जात…

अफगानिस्तान की महिलाओं के बहाने तमाम स्त्रियों को संघर्ष के लिए प्रेरित करते हुए वे कहती हैं—–

निकल भागे हैं
तुम्हें छोड़कर तुम्हारे अपने पुरुष
पिता, भाई, पति और पुत्र!
तमाशबीन हैं विश्व की महाशक्तियां, शान्ति संस्थाएं
मीडियावीर, विमर्श-योद्धा!

यह वो जंग है मेरी सखियों
जो लड़नी है
तुम्हें खुद,
अपनी और
अपनी बेटियों की खातिर!

शताब्दी की महा आपदा कोरोना की तुलना एक लघुकथा से ही करते हुए उन्होंने जीवन के प्रति आश्वस्त किया कि—-

बाज़ारों में
बढ़ती चहल-पहल
लौटती रौनक
पर्यटन-स्थलों के पागलाना जमघट रेला-पेला आपाधापी उठापटक…
सृष्टि का शाश्वत महाख्यान,
हर महा-आपदा
मात्र एक लघु कथा
जीवन कब है
समाप्त हुआ?

अपनी एक कविता ‘कटघरे में कवि’ के माध्यम से उन्होंने कवि समाज की तटस्थता पर भी प्रश्न उठाया है…

“क्यों नहीं लिखी तूने
पिंजरे में कैद पंछी की व्यथा”
कर कवि को
कटघरे में खड़ा
पूछता है प्रश्न
यक्ष मेरे समय का!

एक अन्य कविता में उन्होंने जीवन के दूसरे पक्षों में व्यस्त लोगों को याद दिलाया है कि…

घर की
नम, उदास दीवारें
कहती हैं…
इस घर में
कोई औरत भी
रहती है…

यूं तो यह कबीरन भी जानती और स्वीकारती है कि….

शब्दों की हर यात्रा का
अंतिम पड़ाव है केवल मौन…
गूढ़ सत्य यह आदि अनादि
कवि से बढ़ कर जाने कौन…

इसके बावजूद स्वतंत्र लेखन के लिए ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले चुकी इस कवयित्री के ताज़ा काव्य संग्रह की अंतिम पंक्तियां उनके संकल्प और भावी योजना से तो परिचित कराती ही हैं…

अभी न रुकना
मेरी लेखनी
यात्रा अभी
बहुत है बाकी

पाठकों से सार्थक संवाद करती कबीरन रश्मि बजाज का यह सृजन पठनीय ही नहीं प्रेरक और विचारणीय भी है। इस विचार यात्रा में शामिल होने का निमंत्रण देती प्रतीत होती हैं उनकी कविताएं।

कृष्ण गोपाल विद्यार्थी

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