मुकेश पोपली
राम नगीना मौर्य का नया कहानी संग्रह ‘आगे से फटा जूता’ न केवल आपको गद्य के नए संसार में ले जाता है बल्कि रोचकता का भरपूर पुट होने के कारण पाठक को गुदगुदाता भी है। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ आत्मकथात्मक है। इन कहानियों में केवल कल्पनाएं नहीं हैं बल्कि उनके जीवन के अनुभव भी शामिल हैं क्योंकि सिर्फ कल्पना को लेकर कहानी
चिरकाल तक ज़िंदा भी कहाँ रहती है। पुस्तक की भूमिका में लेखक ने अपनी बात शीर्षक के अंतर्गत उन तमाम पाठकों और समालोचकों के उद्धरण दिए हैं जो उनके ही पूर्व प्रकाशित पाँच कहानी संग्रहों पर व्यक्त किए गए। वह इन सभी महानुभावों का आदर करते हुए उनकी टिप्पणियों को प्रेरक और मार्गदर्शक मानते हैं जो यह सिद्ध करता है कि वह अपने
पाठकों की राय को महत्त्व भी देते हैं।
कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आगे से फटा जूता’ के बारे में भी वह लिखते हैं कि कहानी चार-पाँच सालों में परिवर्तित होती रही। यह तथ्य स्वागत योग्य है कि इस कहानी में घटनाक्रम जुड़ते रहे और इसलिए यह कहानी लम्बी हो गई। लेखक की स्वीकारोक्ति यह दर्शाती है कि वह इस कहानी से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। इस कहानी में किसी भी
घटनाक्रम को कहीं भी डाला जा सकता था लेकिन कहानी की मर्यादा का पूरा ध्यान रखा गया है और इस कहानी में रोचकता भरी सत्य घटनाओं को भी श्रेष्ठ तरीके से गूँथा गया है। कहानी बीच-बीच में संवेदना जगाती है और मानवता के प्रति सजगता भी। बरसात के बहाने से घर के आगे की नाली में अटका जूता उनकी कल्पना शक्ति को तो बुनता चला ही जाता है और साथ ही तमाम प्रसंगों को भी बहुत ही सोच-समझकर इस कहानी में शामिल किया गया है। साहित्यिक शब्दों और गोष्ठियों के संवादों से लिपटी सभा भवन के बाहर रखे जूतों की बातचीत इस कहानी को ऊँचाई की ओर ले जाता है। इस कहानी से यह साफ जाहिर होता है कि लेखक एक सामाजिक प्राणी भी है। वह केवल अपनी कहानियों में ही लिप्त नहीं रहता बल्कि साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र पर कड़ी नज़र भी रखता है। कथनी-करनी का अंतर, महानुभावों की पंक्तियाँ, वक्ताओं के वक्तव्य आदि विशेषताओं से युक्त इस कहानी का अंत पाठकों के हृदय की तरंगों को छूता है। मेरी नज़र में यह कहानी अभी और भी लंबी हो सकती थी क्योंकि जहाँ बांसुरी की बात आती है, वहाँ अभिव्यक्ति के और भी
द्वार खुलते नज़र आते हैं।
‘साँझ-सवेरा’ इस संग्रह की सबसे छोटी और सर्वश्रेष्ठ कहानी है। दांपत्य जीवन में पति-पत्नी एक दूसरे की चिंता तो करते हैं लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि दिल की बात दिल तक उसी रूप में नहीं पहुँच पाती और तकरार होती है। गुस्से के वातावरण में एक चौराहे पर लाल बत्ती पर एक बुजुर्ग दंपत्ती का वार्तालाप सुनते हुए पति-पत्नी दोनों अपना पूरा ध्यान उन पर केंद्रित कर देते हैं और फिर जीवन की असली खुशियाँ वह ढूँढ़ ही लेते हैं। ‘ग्राहक देवता’ में दुकानदार एक चाकू के कारण किसी भी ग्राहक को केले नहीं दे पाता। अंतत: सबसे पहले आया ग्राहक देरी होने के कारण निराश हो जाता है। जब चाकू उसके थैले के नीचे मिलता है तब उसे ही इस बात का दोषी मान लिया जाता है। आखिर दूकानदार स्वीकार करता है कि ग्राहक तो देवता होता है। यह कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि पाठक के सामने बासु चटर्जी या ऋषिकेश मुखर्जी की कोई ऐसी फ़िल्म चल रही है जिसमें झगड़े की स्थिति तो बनती है फिर भी सबकुछ सामान्य रहता है।
‘ग्राहक की दुविधा’ में ग्राहक सर्वेसर्वा है, इस बात की व्याख्या विभिन्न विचारों से की गई है। ग्राहक की प्रवृत्ति अलग-अलग हो सकती है, दूकानदार तेज-तर्रार और भोला-भाला हो सकता है फिर भी, कुछ सिद्धांत तो दुकानदार के लिए बने ही हैं। इसी आधार पर नायक ने एक गरीब और ईमानदार स्त्री की दूकान पर सौदा लेना तय किया लेकिन सब्जी के बासी
दीखने और दूकान में पर्याप्त स्व च्छता न होने के कारण उसका मन खिन्न हो उठता है। सुझाव देने की अपनी आदत से मजबूर नायक जब ऐसा करता है तब पता चलता है कि सब्जी विक्रेता महिला का मर्द जो भी कमाता है, दारू और जुए में उड़ा देता है। फिर भी नायक के मन में यह बात बहुत देर तक खटकती रहती है कि वह उस गरीब स्त्री से सब्जी नहीं खरीद पाया।
कहानी ‘ढाक के तीन पात’ में एक मित्र दूसरे मित्र को अपने व्यवहार और आदतों में सुधार लाने की सीख देता है और उसकी गलतियों को घट चुकी अनेक घटनाओं से समझाता है लेकिन इस तमाम समझाइश का उस पर कोई असर नहीं होता। इसके बावजूद इसे दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए कि हमारे देश में बहुत से लोग राय देते हुए थकते नहीं
हैं। ऐसे लोग हमेशा आदर्शों पर चलना चाहते हैं लेकिन परिस्थितियों को नहीं पहचानते।अक्सर किसी के सुख को कोई बरदाश्त नहीं कर पाता और इस बात पर इतराता है कि उसके पास अधिक अनुभव हैं।
‘लिखने का सुख’ शीर्षक से सजी कहानी बार-बार यह कहती है कि परिवार हमेशा एक-दूसरे समझने से और सहयोग से ही चलता है। जिस परिवार में पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे पर हावी हों तो वहाँ निश्चित ही तनाव रहेगा और बच्चों पर भी बुरा असर होगा। कदम- कदम पर टोका-टाकी है लेकिन एक परिवार के रूप में वे सभी की एक-एक आदत से वाकिफ़
हैं। नायक एक लेखक भी है और इसलिए वह संवेदनशील भी है। राह चलते किसी भी परेशान इनसान, कार्यालय और घर में भी वह सबकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है, चाहे इसके लिए स्वयं को परेशानी से गुजरना पड़े। एक पाठक के रूप में यह कहानी आपको कहीं विश्राम नहीं लेने देती और एक ही सांस में अपने आपको पढ़ा लेना चाहती है।
कहानी ‘पंचराहे पर’ में थोड़ी मस्ती है तो थोड़ी गंभीरता भी। किसी भी शहर में ऐसे चौराहे और पंचराहे मिल जाएंगे जहां अक्सर बड़े भवनों में विभिन्न कार्यालयों के कार्मिक भोजनावकाश के समय अपना समय गुजारते हैं। उस स्थान पर वह चाय सुड़कते हैं, कुछ हलका-फुलका खाते हैं तो कुछ बातों में ही अपना समय व्यतीत करते हैं। यही वो स्थान
होता है जहां दुनिया भर की खबरों से आप कुछ ही लम्हों में न केवल वाकिफ़ हो जाते हैं बल्कि अनेक समस्याओं का निपटान भी पा लेते हैं। इस कहानी की बुनावट गठीली है और मनोरंजक भी।
‘परसोना नॉन ग्राटा’ शीर्षक का अर्थ बहुत से पाठकों को डिक्शनरी में देखना पड़ सकता है लेकिन कहानी में इतनी जिज्ञासा है कि आप इसे सहज ही अंत तक पढ़ना चाहेंगे। सोशल मीडिया और आजकल के समय में दिखावे के जीवन पर इसमें चोट की गई है। लेखक का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना नहीं है लेकिन यह बताने की एक कोशिश है कि हम कभी- कभी अपनी ही कुछ गलत आदतों के कारण लोगों के दिलों से बाहर हो जाते हैं अर्थात अवांछित बन जाते हैं।
‘गड्ढा’ कहानी समाज के उन व्यक्तियों और सरकारी तंत्र का मखौल उड़ाने में सक्षम है जहाँ लापरवाही चिल्ला-चिल्लाकर बोलती है। किसी का भी दोष किसी के सिर मढ़ देना आजकल की जीवनशैली में शामिल है। वैसे एक बात और भी है कि यह जो हमारे हाथों में श्रवण और वाचक यंत्र है, यह हमें किस गर्त में ले जाएगा, हम नहीं जानते। इस यंत्र के कारण ही हम रोजाना ही न जाने कितनी दुर्घटनाओं से दो चार होते हैं। सड़क पर कचरा, टूटी हुई पाइप लाइनें, सड़क की छाती पर भारी वाहनों की चोट आदि अनेक ऐसे कारण हैं जिनका सरोकार सरकारी है लेकिन वहाँ पर कार्यरत कर्मचारी आदेशों पर तत्काल कार्यवाही नहीं करते जिसका परिणाम आम आदमी को भुगतना पड़ता है।
‘उठ! मेरी जान…’ एक सामाजिक कहानी है जिसका मूल उद्देश्य ऐसी महिलाओं को प्रेरणा देना है जो किसी भी कारण से अपनी शिक्षा को पूरा नहीं कर पाती या अपनी रुचि को घर-गृहस्थी और दूसरे कारणों से दबा लेती है। कहानी में कश्मकश है, कुछ स्नेह है तो कुछ समाज की बाधाएँ हैं लेकिन पाठक को बांधे रखने में सक्षम है।
‘ऑफ़ स्प्रिंग्स’ एक ऐसी कहानी है जिसमें घर के मसले हैं, बड़ों-बूढ़ों की राय है, कार्यालय की विवशताएँ हैं, विपदाएं हैं और समाधान भी है। कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है कि पुरानी पीढ़ी के अनुभवों को यदि हम काम में लें तो बहुत सी समस्याओं को आसानी से निपटाया जा सकता है।
‘आगे से फटा जूता’ कहानी संग्रह में हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी और स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग बड़ी ही खूबसूरती से किया गया है। यह देशज शब्द और वाक्य कहानी की गति में कहीं भी बाधक नहीं बनते बल्कि उसे रोचकता के साथ विशिष्ट भी बनाते हैं। कुछ मुहावरों और कहावतों के प्रयोग से लेखक की कहानियों के प्रति गंभीरता का अंदाज़ा लगाया
जा सकता है। राम नगीना मौर्य की पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों की तरह ‘आगे से फटा जूता’ भी पाठक जगत में भरपूर स्वागत होगा, इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है।
पुस्तक: आगे से फटा जूता (कहानी संग्रह)
लेखक: राम नगीना मौर्य
प्रकाशन वर्ष: 2022
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
पृष्ठ: 132 मूल्य: 220/- रुपये
मुकेश पोपली
'स्वरांगन', ए-38-डी, करणी नगर
पवनपुरी, बीकानेर-334003