सुनो पुरुष…

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सवेरे – सवेरे नहा धोकर
धुली  प्रेस की ड्रेस पहनकर
बाल संवार कर
जूते पहनकर
हाथ में तिरंगा लेकर
खुशी खुशी निकली थी आजादी
स्कूल में जन गण मन
राष्ट्रभक्ति के गीतों से ओतप्रोत
आजादी की खुशबू से सराबोर
सारे जहां से अच्छा गुनगुनाती हुई
लड्डू लेकर  लचकती इठलाती हुई
घर लौट रही थी
दांतों नाखूनों वाले प्रेतों द्वारा खाई
चबाई नोची खसोटी हुई
बदहवास खून से लथपथ
अंधे अंधेरे प्रेतों के साये
लेकर अधमरी
लौटी है
आपकी प्यारी सी गुड़िया
सुंदर सी लाडो परी
आजादी
डॉ पुष्पलता साहित्यकार
सुनो पुरुष
मैं नहीं पकड़ूंगी
तुम्हारा बढ़ाया दोस्ती का हाथ
क्योंकि मैं जानती हूँ
तुम जिस तस्वीर से आकर्षित हो
मेकअप के बाद खींची गई
अनेक में से छांटी है
मैं जानती हूँ तुम जिन आदतों से भागे हो स्त्री की
वो मुझमें भी हैं
मैं जानती हूँ तुम्हारे घर में भी है
मुझसे खूबसूरत या मुझ जैसी स्त्री
मैं जानती हूँ
कुछ दिन बाद तुम्हें मुझसे
बोरियत होगी
तुम ढूंढोगे मुझ सी दूसरी
मैं जानती हूँ
तुम्हारा मरहम पहले ठंडक देगा
फिर जलाएगा मुझे
मैं जानती हूँ
तुम्हारी दोस्ती निर्बाध है
 एक निष्ठ भी नहीं
तुम भरोगे दो दिन बाद ही
झूठे प्यार का दंभ
मैं जानती हूँ
दोस्ती का फिर प्यार का
किसी और के सम्मुख
भी भर चुके हो पहले भी
दंभ
मैं जानती हूँ
थोड़े से सुकून की तलाश है तुम्हें
मुझे भी है मगर
तुम्हारे चेहरे में उस व्यक्ति का
चेहरा है जो मौजूद है
मेरे घर में
जिसकी कुछ आदतों से भागी हूँ मैं
लौट जाओ
वो चेहरा उधेड़ कर आओ
अपनी आत्मा से
मैं पकड़ लूँगी
तुम्हारा हाथ
डॉ पुष्पलता साहित्यकार
सुनो पुरुष
तुम्हारी इज्जत की ठेकेदार
कब तक रहूँगी मैं
किसी से प्रेम करूँ
किसी से बात करूँ
किसी के साथ चलूँ
किसी को खून दे दूँ
किसी का पक्ष ले लूँ
किसी को देखकर
मुस्करा दूँ
इतने भर से उतर जाती है
तुम्हारी इज्जत
तुम रिश्तों का कत्ल कर देते हो
कॉलगर्ल्स के साथ
रह लेते हो
धोखा देकर रेप कर डालते हो
प्रेम के झांसे देकर औरतें
फसाते हो
तब भी साबुत रहती है
तुम्हारी नाक और इज्जत पर
लानत भेजती हूँ मैं
थूकती हूँ तुम्हारी
इस खोखली झूठी इज्जत पर
जो मेरे किसी से प्रेम करने पर
लूट जाती है
और किसी के साथ
सो लेने के बाद भी
मेरे मार देने पर दोबारा
जुड़ जाती है
मेरे पिता मेरे भाई मेरे पति
धिक्कार है तुमपर
डॉ पुष्पलता साहित्यकार
 सुनो पुरुष
तुम प्रीतम हो
होना चाहते हो साहिर
इमरोज भी
मगर मैं
कभी नहीं चाहती
सोलह वर्ष में प्रीतम से शादी
साहिर से प्रेम वश तलाक
घर छूटने पर साहिर को गीता में
व्यस्त मस्त देखना
टूटा हृदय लेकर
किसी इमरोज की
खैरात पर पलना
बदनामी अपमान झेलना
दर्द और आँसू बेचना
किसी बीवी किन्हीं बच्चों
के आँख की किरकिरी बनना
दोबारा जन्म लेना
अमृता होना
मुझे प्रीतम में क्यों नहीं मिलता
साहिर और इमरोज
जब तीनों एक में समा जाएँ
तब पुकारना मुझे
लौट आएगी मेरी भटकती हुई
रूह
जो जी नहीं पाई थी
अपनी जिंदगी
मैं साहिर -इमरोज की बीवी भी
नहीं बनना चाहूँगी
जानती जो हूँ
इमरोज की बीवी का दर्द
 गीता को देखकर उभरा
अमृता का दर्द
भिन्न नहीं था उससे
डॉ पुष्पलता साहित्यकार
सुनो पुरुष
हम दोनों ने लगाया था
रिश्ते का ये पेड़
जो सूख गया
तुम इसे पानी दिखाते हो
मैं वाह का अँगूठा दिखा देती हूँ
मैं इसे पानी दिखाती हूँ
तुम वाह का अँगूठा दिखा देते हो
हम दोनों खाना चाहते थे
इस पेड़ के फल
मगर न तुमने सब्र था न मुझमें
न तुमने इसे सींचा न मैंने
मगर दिखाते रहेंगे इसे पानी
जमाए रखेंगे इसे
दिल के गमले में
ताकि आने वाली पीढ़ियाँ
लगाती रहें पेड़
देती रहें पानी
खाती रहें फल
नाकाम रिश्ते की औलाद
निकम्मी नालायक हो
जरूरी तो नहीं
हम छिपा लेंगे अपनी
नाकामी
समाज के हित में पेड़ के हित में
पीढ़ियों के हित में
इतना तो कर ही पाएंगे न
हम
डॉ पुष्पलता साहित्यकार

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